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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


उन्माद (कहानी) : मुंशी प्रेमचंद

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मनहर को गुप्तचर विभग में ऊंचा पद मिला। देश के राष्ट्रीय पत्रों ने उसकी तारी फ़ों के पुल बांधे, उसकी तस्वीर छापी और राष्ट्र की ओर से उसे बधाई दी। वह पहला भारटीय था, जिसे यह ऊंचा पद प्रदा किया गया था। ब्रिटिश सरकार ने सिद्व कर दिया था कि उसकी न्याय-बुधि जातीय अभिमान और द्वेश से उच्चतर है।

मनहर और जेनी का विवाह इंग्लैण्ड में ही हो गया। हनीमून का महीना फ़्रान्स में गुजरा। वहां से दोनो हिन्दुस्तान आये। मनहर का दफ़्तर बम्बई में था। वहीं दोनो एक होटल में रहने लगे। मनहर को गुप्त अभियोग की खोज के लिये अक्सर दौरे करने पड़ते थे। कभी कश्मीर, कभी मद्रास, कभी रंगून। जेनी इन यात्राओं में बराबर उसके साथ रहती। नित्य नये दृष्य थे, नये विनोद, नये उल्लास। उसकी नवीनता प्रिय प्रकृति के लिये आनन्द का इससे अच्छा और क्या सामान हो सकता था?

मनहर का रहन-सहन तो विदेशी था ही, घर वालों से भी उसका सम्बन्ध विच्छेद हो गया था। वागेश्वरी के पत्रों का उत्तर देना तो दूर रहा, वह उन्हे खोलकर पढ़ता भी नहीं था। भारत में हमेशा उसे यह शंका बनी रहती थी कि कहीं घरवालों को उसका पता न चल जाये। जेनी से वह अपनी यथार्त स्थिति को छुपाये रखना चाहता था। उसने घरवालों को आने की सूचना तक न दी थी। यहां तक कि वह हिन्दुस्तानियों से बहुत कम मिलता था। उसके मित्र अधिकांश पुलिस और फ़ौज्के अफ़सर थे। वही उसके मेहमान होते। वाकचतुर जेनी सम्मोहनकला में सिद्वहस्त थी। पुरुषों के प्रेम से खेलना उसकी सबसे अमोदमय क्रीड़ा थी। जलाती थी, रिझाती थी, और मनहर भी उसकी कपट्लीला का शिकार बना रहता था। उसे वह हमेशा भूल-भुलैया मॆं रखती, कभी इतना निकट कि छाती पर सवार न कभी इतना दूर कि योजन का अन्तर-कभी निष्ठुर और कठोर, और कभी प्रेम-विह्वल और व्यग्र। एक रहस्य था, जिसे वह कभी समझता था और कभी हैरान रह जाता था।

इस तरह दो वर्ष बीत गये और मनहर और जेनी कोण की दो भुजाओं की भांति एक दूसरे से दूर होते गये। मनहर इस भावना को हृदय से न निकाल सकता था कि जेनी का मेरे प्रति एक विशेष कर्तव्य है। वह चाहें उसकी संकीर्णता हो या कुल मर्यादा का असर क इवह जेनी को पाबन्द देखना चाहता था। उसकी स्वच्छन्द वृत्ति उसे लज्जास्पद मालूम होती थी। वह भूल जाता था कि जेनी से उसके सम्पर्क का आरम्भ ही स्वार्थ पर अवलम्बित था। शायद उसने समझा था कि समय के साथ जेनी को अपने कर्तव्यों का ज्ञान हो जायेगा; हालांकि उसे मालूम होना चाहिये था कि टेढ़ी बुनियाद पर बना हुआ भवन जल्द या देर से भूमिस्थ होकर ही रहेगा। और ऊंचाई के साथ उसकी शंका और भी बढ़ती जाती थी। इसके विपरीत जेनी का व्यवहार परिस्थिति के बिल्कुल अनुकूल था। उसने मनहर को विनोदमय तथा विलासमय जीवन का एक साधन समझा था और उसी विचार पर वह अब तक स्थित थी। इस व्यक्ति को वह मन में पति का स्थान नहीं दे सकती थी, पाषाण प्रतिमा को वह अपना देवता न बना सकती थी। पत्नी बनना उसके जीवन का स्वप्न न था, इसलिये वह मनहर के प्रति अपने किसी कर्तव्य को स्वीकार नहीं करती थी। अगर मनहर अपनी गाढ़ी कमाई उसके चरणों पर अर्पित करता था तो कोई अहसान न करता था। मनहर उसका बनाया हुआ पुतला, उसी का लगाया हुआ वृक्ष था। उसकी छाया और उसके फ़ल का भोग करना वह अपना अधिकार समझती थी।

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